Tuesday, December 31, 2013

क्या इस साल भी --तुम बदलोगे सिर्फ अपना नाम (अजय की गठरी)

                                (70)

नाम बदलने से --कोई नया हो जाता है ?
करवट बदलने से क्या हो जाता है ?
तुम-- दो हजार तेरह से , दो हजार चौदह हो जाओगे
तो क्या --भय,भूख,भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाओगे ?
दल्ले ,देश बेचकर मालामाल हो रहे हैं |
योग्य,पलायन कर रहे हैं--या बदहाल हो रहे हैं ||
दिन प्रतिदिन बढती बेरोजगारी ,नौकरी के लिए मारामारी ||
देश का युवा --गलत रास्ते पर जाने से कैसे बच पायेगा ?
क्या ईमानदारी गूँथ कर ,रोटी पकायेगा ?
लोगों की मरी हुई भावनाओं को जगाओ |
अच्छी सोच और संवेदनाओं को जगाओ ||  
गरीबों की अवस्था को बदलो --सड़ी हुयी व्यवस्था को बदलो ||
क्या इस साल ---
भूख से कोई नहीं मरेगा ?
किसी दबंग से कोई नहीं डरेगा ?
क्या क़ानून कर पायेगा अपना काम ?
या --बीते सालों की तरह
क्या इस साल भी --तुम बदलोगे सिर्फ ,  अपना नाम ||
याद रखो ---जब चाल,चरित्र,और चेहरा बदल कर आओगे |
तभी अलविदा और स्वागत की सलामी हमसे पाओगे ||
यदि ,व्यवस्था नहीं सिर्फ नाम बदल कर आओगे |
तो सिर्फ ---एक और साल बन कर रह जाओगे ||

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आशा और उम्मीद के साथ कि नया वर्ष पुराने से बेहतर हो 
          गठरी पर अजय कुमार
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Saturday, December 21, 2013

चंद कमरों का था ये मकां,आपने इसको घर कर दिया ----(अजय की गठरी )

                   (६९ )
सुबह मिलना था पर आपने,आज फिर दोपहर कर दिया |
चंद कमरों का था ये मकां,आपने इसको घर कर दिया ||

हुस्न से अपने थी बेखबर 
जब जवानी की आहट हुई
खुशबू ऐसी बदन से उठी 
शहर को बाखबर कर दिया ||

उनके गर्दन से लिपटा था जो  
एक झोंके से लहरा गया 
वो दुपट्टा उन्होंने तो बस 
यूँ इधर का उधर कर दिया ||

कल मिलेंगे यहीं इस समय 
कह के जाने लगे जब वो घर |
उसने बाहों में भर के उन्हें 
गीला गीला अधर कर दिया ||

देखो कितना वफादार है 
दुम हिलाये करे कूँ कूँ कूँ |
एक शादी ने इंसान को 
पालतू जानवर कर दिया ||

बिन तुम्हारे मैं ढोता रहा 
जिन्दगी का ये मुश्किल सफ़र |
साथ जब तुम मेरे आ गए 
कितना आसां सफर कर दिया ||

सिर्फ फांसी है उनकी सजा 
पैसा जिनके लिए है खुदा |
इन हवाओं में घोला जहर 
थालियों में जहर भर दिया ||

राह दिखलाते हैं अब हमें 
दलाल ,बेईमान ,तस्कर ,डकैत |
खादी में जादुई है असर 
लुच्चों को मान्यवर कर दिया ||
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 गठरी पर अजय कुमार
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Thursday, October 24, 2013

‘‘जि़ंदगी कैसी है पहेली..’’---मन्ना डे नहीं रहे (अजय की गठरी )

                                                  (६८)
मन्ना डे के जाने के बाद संगीत के सुनहरे दौर के महान गायकों की आख़िरी कड़ी भी आज बिखर गयी | प्रबोध चन्द्र डे उर्फ मन्ना डे का जन्म एक मई 1920 को कोलकाता में हुआ था।
संशाधन होते हुए भी उसका उपयोग न होना , इसका ज्वलंत उदाहरण थे "मन्ना डे" |संगीत के सुनहरे दौर में भी  नायाब गायक का समुचित इस्तेमाल न होना एक त्रासदी से कम नहीं | फिर भी जो गाने इन्हें मिले वो अमर हो गए |जिस गाने को बड़े से बड़ा गायक छूने की हिम्मत नहीं करते थे , उन गानों के साथ समुचित न्याय मन्ना डे ने किया |हालांकि उनके ऊपर शास्त्रीय संगीत के गायक का ठप्पा लगा दिया गया था ,लेकिन जब भी उन्हें अलग तरह के गाने मिले उन्होंने चार चाँद लगा दिए |उन्होंने हरिवंश राय बच्चन की मशहूर कृति ‘मधुशाला’ को भी आवाज दी|इसके अलावा 'पूछो न कैसे मैंने रैन बिताई', 'लागा चुनरी में दाग़', 'आयो कहां से घनश्याम' 'सुर न सजे', 'कौन आया मेरे मन के द्वारे', 'ऐ मेरी जोहर-ए-जबीं', 'ये रात भीगी-भीगी', 'ठहर जरा ओ जाने वाले', 'बाबू समझो इशारे', 'कसमे वादे प्यार वफा' जैसे गीत भी काफी पंसद किए गए| फिल्मों में उल्लेखनीय योगदान के लिए वर्ष 1971 में पद्मश्री पुरस्कार और वर्ष 2005 में पद्म भूषण पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके अलावा वह वर्ष 1969 में फिल्म 'मेरे हुजूर' के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक, 1971 में बंगला फिल्म 'निशि पदमा' के लिये सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक और 1970 में प्रदर्शित फिल्म 'मेरा नाम जोकर' के लिए फिल्मफेयर के सर्वश्रेष्ठ पार्श्र्वगायक पुरस्कार से सम्मानित किये गये। वर्ष 2007 में उन्हें फिल्मों के सर्वोच्च सम्मान दादा साहब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्होंने न केवल रागों पर आधारित गीत गाए बल्कि कव्वाली और तेज संगीत वाले गीतों को भी अपनी आवाज से सजाया।मन्ना डे की आवाज कई पीढ़ियों की पसंदीदा रही है और आने वाली पीढ़ियों तक रहेगी |
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                       गठरी पर अजय कुमार
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Sunday, September 8, 2013

सोचता हूँ कि तुम्हें ,प्यार इतना न करूं (अजय की गठरी )

                 ( ६७  )
सोचता हूँ कि तुम्हें ,प्यार इतना न करूं |
छुपके देखा न करूं ,फूल से मारा न करूं ||
अदाएं हुश्न की , तेरी हैं ,इस कदर कातिल
कि मैंने सोच लिया , वक्त को जाया न करूं ||

मैंने सोचा कि तुम्हें प्यार से देखूं न कभी |
कोई  तस्वीर तेरी , पास में रक्खूं न कभी |
अपने हाथों से तेरे जुल्फ ,संवारा न करूं ||

तुम जो आओ तो , किसी काम में मसरूफ रहूँ |
तुमसे जाने को कहूं ,और अकेला ही रहूँ |
देखकर तुमको कभी ,आह ठंडी न भरूं ||

तुमको देखा तो लगा ,वक्त कटेगा अब तो |
ये न सोचा कि कोई,तंग करेगा मुझको |
कितना चाहा कि तुम्हें ,प्यार से देखा न करूं ||

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गठरी पर अजय कुमार
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Sunday, August 18, 2013

महाबलेश्वर-पंचगनी की हसीन वादियाँ (अजय की गठरी )

                                                   (66)
बात होती थी और बस बात ही होकर रह जाती थी ,लेकिन जहां चाह - वहाँ राह की तर्ज पर एक दिन बात बन ही गयी ,और फिर चार  ऊर्जावान मित्रों की टोली , सपत्नीक ,मय बाल-बच्चों के कूच कर गयी --महाबलेश्वर और पंचगनी के लिए | ये तारीख थी २३ नवम्बर २०१२ की |
                                                      सफर की शुरुआत

                        कौन क्या खायेगा ? (फाइनल आर्डर से पहले सेमीफाईनल )

प्रस्थान के पहले रहने -खाने की व्यवस्था के लिए होटल के स्थान पर एक बंगला लिया गया ,जो बहुत ही सुविधाजनक और मितव्व्यता की दृष्टी से काफी अनुकूल रहा |इसमें ३ बेडरूम ,एक ड्राईंग रूम किचन और बड़ा सा कैम्पस था --मन को भानेवाला |

 
                                         
                       बाएं से -मैं ,विमल वर्मा जी ,संजय मिश्र जी और सरोज झा जी
                               ( ऊपर के फोटो में हमारी पत्नियां भी इसी क्रम में बैठी हैं )

                                                झूले और क्रिकेट का आनंद
                                                         आप की खुशी --हमारी खुशी

                                    दिन में सूना है --रात को गुलजार था ( हम यहाँ बैठे थे )


समुद्र तल से लगभग १४०० मीटर की ऊंचाई पर स्थित महाबलेश्वर की दूरी मुम्बई से लगभग २५० कि.मी. है |२३ नवम्बर की सुबह हम ६ बजे मुम्बई से चलकर दोपहर १ बजे के आस पास पंचगनी पहुँच गए |


अगले दिन दोपहर में हमारी वापसी मुम्बई के लिए थी , तो इस कम समय में हमें काफी कुछ देख लेना था | चूंकी हमारे पास अपना वाहन मौजूद था तो कोई समस्या नहीं हुयी |
                                          कुछ खाते रहो ---सुस्ताते रहो

                                            ई है दूरबीन--देखो नजारा हसीन
                                            एतना मोलभाव --घोड़ा भी फ्रस्टेट हो गया
                                           चल मेरे घोड़े , टिक टिक टिक
                                               पूर्वजों की सेवा
                                            प्राकृतिक जल स्रोत
                                                        स्ट्राबेरी
                                           
बच्चों के उत्साह और हम सब की इच्छाशक्ति ने तो इसे और भी आसान कर दिया
                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                              जोश और जूनून के साथ ये दिन ख़त्म हुआ |
                                       सांझ ढली --और हमारी टोली वापस चली

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                                                    गठरी पर अजय कुमार
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Sunday, July 7, 2013

आहें भरकर क्यों गुजरेगी , अब रात हमारे सावन की ( अजय की गठरी )

                            (६५)
हर शाम हो जैसे गजलों का ,हर रात हो जैसे पूनम की |
दिल मेरा तेज धड़कता है , जब झलक दिखे मेरे साजन की ||

इक गीत प्यार का होठों पर
इक जाम प्यार का आँखों में |
साँसों में फूलों की खुशबू ,
अंदाज प्यार का बातों में ||
मिल गया मुझे पूरा सागर ,ख्वाहिश थी केवल शबनम की ||

मैंने इक सपना देखा था
जब मुझे मिले वो राहों में |
जब नजर मिली तो दिल भी मिले
फिर डाल दी बाहें , बाहों में ||
आहें भरकर क्यों गुजरेगी , अब रात हमारे सावन की ||

तुम्हें प्यार मैं कितना करता हूँ
ये पूंछ रही हो मुझसे तुम |
मेरा जवाब मिल जाएगा
ज़रा पूंछ के देखो खुदसे तुम ||
मेरे दिल की बातें छोड़ो ,तुम बात करो अपने मन की ||

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गठरी पर अजय कुमार
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Friday, May 17, 2013

मैंने तुम्हे दिल में क्यों बसाया----- (अजय की गठरी )

              ( ६४ )
मैंने तुम्हे दिल में क्यों बसाया
तुमने --
कभी रुलाया तो कई बार , हंसाया
अनगिनत बार तुम मेरे सुख -दुःख का कारण बने
चाहकर भी मैं तुमसे विमुख नहीं हो सकता
क्यों की हे क्रिकेट तुम नहीं हो गंदे -----
गंदे हैं तुम्हारे चंद नुमाइन्दे----
हम उस दौर में जी रहे हैं
जहां --पैसा ,व्यक्ति और व्यक्तित्व का मूल्यांकन करता है
 पद प्रतिष्ठा ,सम्मान दिलाता है
यही सोच हमें गुनाह के दलदल में ले जाता है
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गठरी पर अजय कुमार
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Sunday, February 10, 2013

कहते हैं मेरे घर में , सामान बहुत है (अजय की 'गठरी ' )


जब तुम नहीं तो ये शहर, वीरान बहुत है |
तुम हो तो इस शहर में भी , जान बहुत है ||

मुझको बताओ दिल में मेरे दर्द क्यूं उठा
सुनते है तुम्हें दर्द की पहचान बहुत है ||

करना है आपको ही मेरे दर्द का इलाज |
बस मुस्कुराके देखिये , आसान बहुत है ||

रहती है इस गली में , कोई शोख हसीना |
कमसिन सी , अपने हुश्न से , अनजान बहुत है ||

हो जाय मयस्सर कभी जुल्फों  की घनी छाँव |
भेजूं किसी को फूल ये अरमान बहुत है ||

इन इश्क की गलियों में बहुत लोग मिलेंगे |
किसी का नाम बहुत है , कोई बदनाम बहुत है ||

पूछा किसी आशिक से , की आराम है कहाँ
बोला उन्हीं की बांह में आराम बहुत है ||

जब सो गए बच्चे तो ,उन्हें प्यार से चूमा |
बोले की हटो , छोड़ो , सुबह काम बहुत है ||

तुम्हारे ख़त , तुम्हारी याद , तुम्हारी तस्वीर |
कहते हैं मेरे घर में , सामान बहुत है ||
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"गठरी" पर अजय कुमार
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Sunday, January 6, 2013

--------"वो"---------(अजय की 'गठरी' )


जीवन की आपाधापी में ,कोई मुझसे मिला अनजाना सा |
उसकी आँखें , उसकी वो अदा ,उसका चेहरा पहचाना सा ||

वो थोड़ा सा शरमाया भी
देखा मुझको ,मुस्काया भी
मुस्कान लगा मुझको जैसे
कुछ फूलों का खिल जाना सा ||

आँखों में उसके राज नया
बातों का इक अंदाज नया
आँखों में अपनापन देखा
अंदाज लगा पहचाना सा ||

वो ऐसे ही हर बार मिला
जैसे की , पहली बार मिला
हर बार लगा अनजाना सा
पर आज लगा पहचाना सा ||
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गठरी पर अजय कुमार
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